Chetna Mantra

पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम

भारतभूमि आदिकाल से ही सदैव धर्मभूमि के रूप में जानी जाती रही है। धर्म ही भारत का ‘भूतकाल रहा, धर्म ही भारत का वर्तमान है और धर्म से ही इस आर्यावर्त के सुंदर भविष्य की कल्पना साकार होनी है। यदि भारत निजधर्म से च्युत हुआ होता, तो कब का विधर्मियों के हाथों उजड़कर अपना अस्तित्व खो चुका होता। अन्य देशों में भले ही राजनीति, अर्थ अथवा सैन्यशक्ति वहाँ की संस्कृति का मुख्य आधार हो, किन्तु भारत की माटी के कण-कण में धर्म के ही तत्त्व समाहित हैं। तात्पर्य यह कि भारत का मूलाधार धर्म ही है।

भारतवर्ष की शिक्षा में धर्म को ही जीवन की संज्ञा दी गई है यथा-

जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मावर्जितम्।
यतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी व संशयः ॥

अर्थात् ” धर्मरहित मनुष्य मरे हुए मनुष्य के समान है। धार्मिक मनुष्य मरने के बाद भी जीवित रहता है, इसमें कोई संदेह नहीं, क्योंकि उसकी कीर्ति अमर रहती है। ऐसा धार्मिक मनुष्य दीर्घजीवी रहता है।” इसी धर्म की रक्षा के लिए सच्चिदानंदस्वरूप सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज का अवतरण इस धरा पर हुआ है और इसी धर्म की रक्षा, नवसृजन व विस्तार के लिए सदगुरुदेव जी महाराज ने पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम धाम की स्थापना की। है। सन् 1990 से लेकर 1995 तक भिन्न-भिन्न स्थानों पर 08 दिव्य महाशक्तियज्ञों को सम्पन्न करने के उपरांत मध्यप्रदेश के ब्यौहारी अनुविभाग अन्तर्गत मैकल पर्वत श्रृंखलाओं एवं सिद्धाश्रम सरिता के मध्य सद्गुरुदेव जी महाराज के द्वारा सिद्धाश्रम धाम की स्थापना की गई, जिसका भूमि पूजन दिनांक 23-1-1997 को सम्पन्न हुआ।

सद्गुरुदेव जी महाराज के द्वारा इस भूतल पर निर्मित सिद्धाश्रम धाम को धर्मधुरी की संज्ञा दी गई है। धर्मधुरी अर्थात् धर्म का केन्द्रबिंदु। यहाँ सम्पन्न नित्य की धार्मिक-अध्यात्मिक व साधनात्मक गतिविधियाँ, इस पावन धाम को विश्वपटल के बीच धर्मधुरी के रूप में स्थापित कर भी रही हैं। अब तक यहाँ समाजहित एवं विश्वकल्याण के हितार्थ नाना प्रकार के अनेक क्रमों को प्रारंभ किया जा चुका है, जिससे समाज के करोड़ों लोग लाभान्वित हो चुके हैं।

यह सिद्धाश्रम धाम, प्रकृतिसत्ता के द्वारा कलिकाल के वातावरण में धरती पर मनुष्यों के कल्याण का एक सुनियोजित विधान है, जिसे सच्चिदानंद भगवान् के द्वारा अपने परमपुरुषार्थ से सँवारा जा रहा है। सद्गुरुदेव जी महाराज जिस सिद्धाश्रम लोक के वासी हैं, उस सूक्ष्मजगत की रचना को उन्होंने इस धरा पर भी साकार रूप प्रदान करने का संकल्प लिया है और यह सिद्धाश्रम धाम उसी सिद्धाश्रम लोक की प्रतिछाया है। जनबल या धनबल से किसी भी संस्था या धार्मिक केन्द्र की स्थापना कठिन नहीं, किन्तु भक्ति, ज्ञान व कर्म के समन्वय से निर्मित सिद्धाश्रम धाम सा चैतन्यस्थल अन्यत्र दुर्लभ है। यह स्थान उन पुरातन चैतन्य भारतीय धार्मिक स्थलों का आधुनिक स्वरूप है, जहाँ पहुँचकर कोई अभावग्रस्त व्यक्ति खाली हाथ नहीं जा सकता, चाहे वह भौतिक दृष्टिकोण से हो या अध्यात्मिक। यही कारण है कि पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम धाम में विश्व के कोने-कोने से आकर लोग, अपने जीवन के अभाव को समाप्त करते हुए आत्मकल्याण एवं जनकल्याण के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं।

यह तीर्थस्थल जनकल्याण हेतु एक साथ संचालित अनेक विशिष्ट प्रक्रमों का एकमात्र स्थान है और यह विविधता ही इस धाम की मुख्य विशेषता है। वर्तमान समाजिक विसंगतियों का पूर्णरूपेण आकलन करके, विलुप्त भारतीय गौरव को जिन-जिन माध्यमों से पुनर्स्थापित किया जा सकता है, उन सभी को सिद्धाश्रम की धरा पर सद्गुरुदेव जी महाराज ने स्थापित किया है।

पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की संपूर्ण गतिविधियों को अगर दो शब्दों में व्यक्त किया जाए, तो वह शब्द होंगे ‘साधना और कर्मयोग’ परमपूज्य सद्गुरुदेव योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज़ के द्वारा स्थापित इस पुण्यधरा पर आने वाला प्रत्येक भक्त साधनामय जीवन और कर्मयोग की प्रेरणा प्राप्त करता है। यहाँ नित्यप्रति सुबह-शाम सम्पन्न होने वाले विशिष्ट आरतीक्रमों में उपस्थित जनसमुदाय के मन में सहज ही साधनात्मक प्रवृत्ति का उदय होता है और यह क्रम दिनचर्या के अंग बन जाते हैं। इन साधनात्मक क्रमों को अपनाकर आज देशभर में लाखों लोग अपने जीवन में प्रकृतिसत्ता व गुरुसत्ता का आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं।

इस तरह निःस्वार्थता, पवित्रता, परोपकार, अध्यात्म व सेवा जैसी दैवीय भावनाओं से सिद्धाश्रम का कण-कण पूरित है, जिससे मानवता के मूलरूप का पुनर्निर्माण अनवरत हो रहा है। ” आने वाले समय में यह पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम धाम विश्व की धर्मधुरी बनेगा। सद्गुरुदेव जी महाराज की इस भविष्यवाणी में, इस तीर्थस्थल का संपूर्ण महत्त्व समाहित है। यह भविष्यवाणी इस सिद्धाश्रम धाम के भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालखण्डों के अद्भुत स्वरूप का प्रतिपादन करती है।

विश्व की धर्मधुरी बनने का सौभाग्य धरा के जिस टुकड़े को प्राप्त है, निश्चित ही उसका निर्माण प्रकृति द्वारा विशेष मानदंडों के अनुरूप ही किया गया होगा। सम्भवतः यही कारण है कि सिद्धाश्रम की यह धरा पर्वत श्रृंखलाओं, सघन वृक्षों एवं एक सरिता रूपी प्रकृति के मनोहारी रूप से आबद्ध है और वर्तमान समय में यहाँ एक पूर्णत्व प्राप्त ऋषि के द्वारा विशिष्ट साधनात्मक क्रम के माध्यम से ‘माँ’ का आवाहन किया जा रहा है। वर्तमान में यहाँ पर निर्मित ‘माँमय’ वातावरण को देखते हुए यह सुनिश्चित है कि सिद्धाश्रम पर भविष्य में संपन्न होने वाले अतिविशिष्ट महाशक्तियज्ञों से ऊर्जा का वह प्रवाह फैलेगा, जिससे सुख-शांति हेतु पूरा विश्व सिद्धाश्रम की और निहारने के लिए बाध्य होगा।

पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम धरती का कोई सामान्य टुकड़ा नहीं, बल्कि यह एक पूर्ण चैतन्य स्थल है, जो दिव्य सिद्धाश्रम लोक, सच्चिदानंद स्वरूप श्री शक्तिपुत्र जी महाराज व उनकी संकल्प शक्ति के समन्वय से अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुआ है।

सिद्धाश्रम लोक

सिद्धाश्रम वह लोक है, जिसकी महिमा भारत के सभी महत्त्वपूर्ण धार्मिक-अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित है।’ आश्रम’ शब्द का सामान्य अर्थ है, साधु-संतों का निवासस्थान अथवा वह स्थल, जहाँ पर संतों के द्वारा भक्ति, ध्यान, तप, वैराग्य का अभ्यास किया जाता हो और सिद्धाश्रम लोक वह स्थान है, जहाँ पूर्णताप्राप्त ऋषि निवास करते हैं। अतः सिद्धाश्रम ऋषियों की तपस्थली एवं प्रतिक्षण पूर्ण चैतन्य होने के कारण स्वयंसिद्ध है।

जब मनुष्य के महान अलौकिक संस्कारों का उदय होता है, जब साधक अभ्यास की प्रक्रिया के पार पहुंचकर आत्मदृष्टा हो जाता है और जब वह ऋषित्व की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब उसे सिद्धाश्रम लोक की प्राप्ति होती है। यह परमसौभाग्य जन्म-जन्मांतरों के संस्कारों एवं देवी-देवताओं के शुभाशीर्वाद का शुभ परिणाम होता है।

धरा पर अनेक मंदिरों, मठों, अखाड़ों व आश्रमों की स्थापना है, जिन्हें खुली आँखों से देखा जा सकता है एवं सहजरूप से वहाँ पहुँचकर पात्रतानुसार लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु सिद्धाश्रम लोक की स्थिति भिन्न है। वह सूक्ष्मजगत् का एक महत्त्वपूर्ण अध्यात्मिक केन्द्र है, जो साधकवृत्ति की उच्चता के बाद ही प्राप्त हो सकता है और जब मनुष्य स्थूल से परे अपने सूक्ष्म पर अधिकार प्राप्त कर लेता है, तभी उसके लिए सिद्धाश्रम लोक प्राप्ति की संभावना का द्वार खुलता है।

यह मुक्ति का वह धाम है, जहाँ पहुँचने के बाद पतन का मार्ग समाप्त हो जाता है। जिस प्रकार घी में डूबी बाती की लौ कभी बुझ नहीं सकती, उसी प्रकार सिद्धाश्रमप्राप्त योगी, पतन की संभावना से परे सदैव के लिए अमरत्व को प्राप्त होजाता है। बड़े-बड़े तपस्वियों के लिए भी यह स्थान दुर्लभ है, जिस पर सच्चिदानंद भगवान् की पूर्ण कृपा हो, यह उसके लिए ही सुलभ हो सकता है।

वेदों, पुराणों व सभी उपनिषदों में सिद्धाश्रम की महिमा का बखान है। ऐसी मान्यता है कि हमारे सप्तऋषि, सिद्धयोगी एवं अन्य महत्त्वपूर्ण ऋषिगण व संत, युगों-युगों से उस दिव्यलोक सिद्धाश्रम में वास करते हैं। इन अनेकानेक दिव्य विभूतियों की उपस्थिति ही वह कारण है, जिससे वहाँ के वातावरण में प्रत्येक क्षण चैतन्यता एवं अलौकिकता का रस निःसृत होता रहता है। वहाँ दिन-रात, सुख-दुःख, लाभ-हानि और जीवन-मरण से परे समत्त्व की स्थिति है। वहाँ चिन्ता, विषाद, जरा, शोक का पूर्णाभाव होता है। सदैव ही चारों ओर सिद्ध मंत्रों की ध्वनियां गुंजायमान होती हैं, यज्ञों के सुगंधित धूम से सारा वातावरण सुवासित रहता है एवं बड़े-बड़े शिलाखण्डों पर ध्यानमग्न योगी यत्र-तत्र विराजमान देखे जा सकते हैं। वास्तव में कहा जाय तो सिद्धाश्रम लोक की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का मूल लक्ष्य है, क्योंकि यह मुक्ति का पर्याय है।

सच्चिदानंद स्वरूप श्री शक्तिपुत्र जी महाराज

ऋषिवर सच्चिदानंद स्वामी, सिद्धाश्रम लोक के संस्थापक और संचालक हैं। गीता भागवत से लेकर कोई ऐसा धार्मिक-अध्यात्मिक ग्रंथ नहीं होगा, जो इनकी महिमा से अछूता हो। स्वामी सच्चिदानंद सभी ऋषियों-मुनियों, संतों तपस्वियों एवं महात्माओं में श्रेष्ठ माने जाते हैं और उनकी ऐसी महिमा है कि देवताओं को भी उनके दर्शन दुर्लभ होते हैं। धर्मग्रन्थों में भिन्न-भिन्न प्रकार से सच्चिदानंद भगवान् की महिमा का बखान किया गया है। आज ऐसे ऋषिवर मानवता के कल्याण हेतु अवतरित होकर इस धरा पर उपस्थित हैं, यह मानवसमाज का सौभाग्य है।

विश्वजगत की वर्तमान स्थिति भयावह है। यह वह कालचक्र है, जिसमें सत्यधर्म की हानि चरमावस्था पर है। अनीति अन्याय-अधर्म का जाल इतना व्यापक है कि लोग चाहकर भी सत्यपथ पर अग्रसर होने में असमर्थ हैं। अतः समाजसुधार, धर्मरक्षार्थ व विश्वकल्याण हेतु सिद्धाश्रम सिरमौर सच्चिदानंद स्वामी स्वयं श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के रूप में अवतरित होकर मानवसमाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं। धर्मग्रन्थों में आसुरीशक्तियों के हाथों देवशक्तियों के पराभव की अनेक कथाएं उद्धृत हैं, किन्तु कहीं ऐसी कोई कथा नहीं, जिसमें कोई ब्रह्मर्षि या महर्षि किसी आसुरीशक्ति से पराजित हुए हों। बल्कि, इनके द्वारा राम-कृष्ण इत्यादि अवतारों को अनेक दिव्यतापूर्ण अस्त्रों-शस्त्रों व गूढ़ विद्याओं से सम्पन्न करने की अनेक कथाएं मिलती हैं। कहने का आशय यह है कि कलियुग के इस अज्ञानतिमिर से मानव को मुक्ति प्रदान करने की क्षमता केवल ऋषिसत्ता में ही हैं।

प्रकृति से एकाकार, तत्त्वों की साक्षात् अपरोक्ष अनुभूति रखने वाला विशिष्ट पुरुष ही ऋषि कहलाता है। अतः अपने जन्म से ही अलौकिकता के पर्याय रहे ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज बाल्यावस्था से ही जप, तप, ध्यान, पूजन एवं सत्संग में रत रहने लगे थे। खेलने-कूदने की उम्र से ही साधनात्मक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने वाले ऋषिवर ने साधना के बल पर ही माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के दर्शन प्राप्त करके इस जीवन की पूर्णता को प्राप्त किया है।

त्याग, तप, वैराग्य को जीवन का अभिन्न अंग बनाकर निजजीवन के अपने हर कर्तव्यों को पूर्ण करते हुए समाज के बीच युगपरिवर्तन व विश्वकल्याण का कार्य सद्गुरुदेव जी महाराज के द्वारा अनवरत किया जा रहा है। धर्म में व्याप्त पाखण्ड, आडम्बर व भटकाव को समाप्त करने एवं धर्म की रक्षा व पुनर्स्थापना हेतु उनके द्वारा पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम धाम की स्थापना की गई है, जिसके माध्यम से सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय के लोगों को कल्याणकारी दिशा प्रदान की जा रही है।

सद्गुरुदेव जी महाराज ने वर्तमान समाजिक परिस्थिति का बार-बार आकलन करने के पश्चात्, समाज को वह पथ प्रदान किया है, जिसकी समाज को आज आवश्यकता है। धर्म का पथ, तप का पथ, साधना का पथ, समाजसेवा और समाजसुधार का पथ। पुस्तकों के परम्परागत ज्ञान के साथ मानवीय कर्तव्यों के पालन का वह दुर्लभ पथ, जो अन्यत्र कहीं भी अप्राप्य है।

सद्गुरुदेव जी महाराज का जीवन ‘माँ’ की अखण्ड भक्ति का दर्शन है। ‘माँ’ की भक्ति कैसे करें और ‘माँ’ की भक्ति क्यों करें? इन दो सर्वकालिक प्रश्नों का सहजतापूर्वक उत्तर देकर उन्होंने ‘माँ’ की भक्ति का एक नवपथ सृजित किया है। समाज को यह पथ प्रदान करने के पूर्व सद्गुरुदेव जी महाराज ने स्वयं ‘माँ’ की अखण्ड भक्ति को अपने जीवन में धारण किया व अपनी इसी अखण्ड भक्ति के बल पर उन्होंने अपने चिंतनों में कहा है कि ” अगर ‘माँ’ स्वयं से मुझे अलग कर सकती हैं, तो करके देखलें।”

09 दिसम्बर 1960 को उत्तरप्रदेश के भदबा ग्राम में सद्गुरुदेव जी महाराज का जन्म हुआ। आपकी माता श्रीमती रामकली देवी अत्यंत ही धार्मिक व सरल स्वभाव की महिला थीं एवं पिता श्री रामबली शुक्ल धार्मिक व्यक्तित्त्व के साथ पुरुषार्थी व उत्कृष्ट चरित्र के धनी थे, अतः गुरुदेव जी को जन्म से ही धर्म-अध्यात्म, सदाचार व पुरुषार्थ का दिव्यतापूर्ण वातावरण प्राप्त हुआ, जिससे एक ऋषि की चेतना निखर उठी। बाल्यावस्था से ही विद्यालयीन शिक्षा के साथ देवपूजन, आरती, साधु-संतों का सान्निध्य एवं जप ध्यान में गुरुदेव जी का मन रमने लगा। किशोरावस्था आते-आते तो गुरुदेव जी जटिल अखण्ड- अनुष्ठानों को संपन्न करने लगे थे, जिनकी ऊर्जा से यदा-कदा उन्हें ‘माँ’ की झलकिया सहज ही प्राप्त हो जाती थीं।

अंततः वह दिन भी आया, जब अखण्ड साधनाओं व अनुष्ठानों के फलस्वरूप सद्गुरुदेव जी महाराज को ‘माँ’ के दर्शन प्राप्त हुए एवं ‘माँ’ के निर्देशन में युग परिवर्तन हेतु उन्होंने जनकल्याण का नवपथ सुनिश्चित किया, जिससे वर्तमान मानव समाज को धर्म-अध्यात्म का एक सुदृढ़ आधार प्राप्त हुआ है।

एक ऋषि का संकल्प

इतिहास प्रमाण है कि ऋषि जब संकल्प लेते हैं, तब समुद्र की अथाह जलराशि को भी अंजलि में भरकर पी जाते हैं, ऋषि जब अपने तपबल का शौर्य दिखाते हैं, तब अस्त्र-शस्त्र और अनगिनत सेनाओं से परिपूर्ण राजशक्तियाँ भी धूल-धूसरित हो जाती हैं और जब ऋषि का त्यागमय जीवन परोपकार हेतु तैयार होता है, तब उनकी अस्थियाँ भी दिव्यास्त्र में परिवर्तित होकर असुरत्व का संहार करती हैं।

जगत् जननी जगदम्बा की सदैव कृपा रही कि यह वसुंधरा हर काल में ऋषियों के जनकल्याणकारी संकल्पों से धन्य होती रही है। इस कलिकाल में भी ‘माँ’ की कृपा से योगेश्वर सच्चिदानंद, श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के रूप में अवतरित हुए, जिनकी संकल्पशक्ति का एक पवित्र पावन व अभूतपूर्व रूप पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम धाम है।

महाशक्तियज्ञों की श्रृंखला के 08 यज्ञ समाज के बीच सम्पन्न करने के पश्चात्, समाज के लिए सुख-शांति और धर्म-कर्म का एक स्थायी आधार निर्मित करने के लिए आपश्री के द्वारा मध्यप्रदेश की ब्यौहारी तहसील के अंतर्गत अंधियारी नामक एकांत स्थान का चयन किया गया। इस स्थल को ‘पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम’ का नाम देते हुए 23-1-1997 को इस धाम की स्थापना की गई।

सिद्धाश्रम धाम के निर्माण के साथ ही ‘माँ’ की ऊर्जा को विश्व के कोने-कोने में पहुँचाकर एक चेतनावान् समाज की रचना हेतु सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने इस पवित्र धाम में स्वयं को साधना, तप व पुरुषार्थ की अग्नि में पल प्रतिपल तपाने का संकल्प लिया। यहाँ आकर लोगों को भटकावों व आडम्बरों से मुक्ति मिल सके तथा वे सहजरूप से धर्म के मार्ग पर प्रवृत्त हो सकें, इसीलिए गुरुवरश्री ने धर्माचरण को सिद्धाश्रम के प्रत्येक क्रियाकलापों से आबद्ध करके इसे धर्मधुरो बनाने का संकल्प लिया। ऋषिवर ने संकल्प लिया कि मैं समाजकल्याण हेतु इसी समाज में रहने वाले सामान्य मनुष्यों में ‘माँ’ की चेतना स्थापित करके ऐसे शक्तिसाधकों को तैयार करूंगा जो अनीति अन्याय-अधर्म को समाप्त करने के सशक्त माध्यम बनेंगे।

इस पवित्रस्थल का निर्माण, इसकी हर संरचना, इसका सम्पूर्ण स्वरूप व विस्तार गुरुवर की संकल्पशक्ति का ही प्रतिफल है। उन्होंने मरुस्थल जैसे स्थान को उद्यान में परिवर्तित किया है, जो कि उनके संकल्पबल से ही संभव हो सका है।

सन् 1997 से लेकर 25 वर्षों तक दिन-रात लगातार, अथक शारीरिक श्रम, अखण्ड तप- साधना व संकल्पशक्ति के बल पर सद्गुरुदेव जी महाराज ने इस सिद्धाश्रम धाम की धरा को इतना व्यवस्थित एवं चैतन्य कर दिया है कि आज पूरा समाज यहाँ आकर श्रद्धापूर्वक सिर झुकाने के लिए बाध्य है। लोकल्याण हेतु यहाँ से ऐसे-ऐसे विलक्षण पथों का निर्माण हुआ है, जिससे आज समाज के हर जाति, धर्म, सम्प्रदाय के लोगों का कल्याण हो रहा है।

एक ऋषि की युगपरिवर्तनकारी विचारधारा से समाज को जोड़ने वाली इस धर्मधुरी का इतिहास स्वयं में अनूठा है। इस पावन धरा पर सम्पन्न सद्गुरुदेव जी महाराज को इस अभूतपूर्व यात्रा के स्वरूप को वही समझ सकता है, जो स्वयं इस यात्रा का सहभागी रहा हो। अतः सौभाग्यशाली हैं वे सभी लोग, जो सद्गुरुदेव जी महाराज के इस तप, त्याग व पुरुषार्थ से परिपूर्ण जनकल्याणकारी यात्रा के साक्षी हैं।

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