जो दूसरों पर विजय प्राप्त करे, वह वीर कहलाता है और जो स्वयं पर विजय प्राप्त कर ले, वह ‘महावीर कहलाता है।’ अब इसे दूसरे शब्दों में कहें, तो जो स्वयं पर विजय प्राप्त कर ले, उसे सनातन व्यवस्था में संन्यासी भी कहते हैं। प्राचीन जीवन व्यवस्था के चार आश्रमों में अंतिम आश्रम, जिसके कुशलतापूर्वक निर्वहन होने से जीवन के समस्त कर्मबंधनों का क्षय हो जाता है। और फिर कुछ भी खोना-पाना शेष नहीं रह जाता। किसी अनासक्त एवं वैराग्यपूर्ण व्यक्ति का संन्यास ग्रहण करना इस धरती की सबसे अलौकिक घटना होती है, क्योंकि इस प्रक्रिया में संपूर्ण मानवता का हित छिपा होता है। हर संन्यासी का जीवन अलौकिक घटनाओं से परिपूर्ण होता है, जिससे मनुष्य कुछ न कुछ दिशा अवश्य प्राप्त कर सकता है।
अब प्रश्न यह है कि संन्यासी कौन हो सकता है और कौन नहीं ? तो इस पर भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्दन्द्रो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।
अर्थात् ” जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह सदा संन्यासी हो समझने योग्य है, क्योंकि हे महाबाहो! द्वन्द्वों से रहित मनुष्य सहज ही बन्धनमुक्त हो जाता है।”
प्रारम्भ से ही त्याग व वैराग्यपूर्ण जीवन जीने वाले धर्मसम्राट् युग चेतना पुरुष सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने छठवें महाशक्तियज्ञ (दिनांक 18 अक्टूबर 1993, अनूपपुर, म.प्र.) में संन्यास धारण कर इस जगत् को धन्य किया था। इसी क्रम में पुनः उनके द्वारा 03 अक्टूबर सन् 2019, शारदीय नवरात्र की पंचमी तिथि व गुरुवार के शुभ अवसर पर अपनी धर्मपत्नी श्रीमती मनोरमा शुक्ला जी (माताजी) को संन्यास की दीक्षा प्रदान करके संन्यास विधा को महान परंपरा को जीवंतता प्रदान की गई। दीक्षा के साथ पूजनीया माताजी का नाम महातपस्विनी शक्तिमयी माताजी हुआ। माताजी का यह संन्यासक्रम उनके संघर्षपूर्ण अध्यात्मिक जीवन व गुरुकृपा का शुभ परिणाम रहा।
माताजी को बचपन से ही घर में धार्मिक-अध्यात्मिक वातावरण मिला। घर में मातेश्वरी दुर्गा जी व हनुमान जी की पूजा सामूहिक रूप से होती थी। इसका प्रभाव यह रहा कि 14 वर्ष की अवस्था से माताजी ने विधिवत नवरात्र का व्रत रहना प्रारंभ कर दिया था, लेकिन उनकी वास्तविक अध्यात्मिक यात्रा 1984 में परम पूज्य सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज से विवाह के पश्चात् प्रारंभ हुई, जब माताजी की दिनचर्या का एक-एक क्षण सद्गुरुदेव जी महाराज की युगपरिवर्तनकारी गतिविधियों से पूर्णतया एकाकार हो गया और सिद्धाश्रम स्थापना के बाद यह यात्रा तपरूषी पुरुषार्थ में परिवर्तित हो गई। गुरुदेव जी की युगपरिवर्तनकारी यात्रा में घर-परिवार व समाज की हर सांसारिक विषमता को अमृत समझकर पान करने वाली माताजी ने सदैव ही साक्षीभाव से जीवन जिया, जो कि बड़े-बड़े तपस्वियों को भी प्राप्त नहीं होता।
आश्रम की स्थापना से लेकर आज तक सभी ऋतुओं व हर स्थिति-परिस्थिति में माताश्री के द्वारा सुबह तीन बजे उठकर सद्गुरुदेव जी महाराज की साधनात्मक गतिविधियों से सम्बंधित व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी का निर्वहन करने के साथ ही सिद्धाश्रम स्थित मूलध्वज साधना मंदिर में प्रातः कालीन आरतीक्रम नित्यप्रति सम्पन्न की जा रही है। वैसे तो श्री दुर्गाचालीसा अखण्ड पाठ की ध्वनि से सिद्धाश्रम की धरा हरक्षण ‘माँमय’ रहती है, सद्गुरुदेव जी महाराज की साधनाओं से यहाँ का वातावरण सदैव आवद्ध रहता है, किन्तु दैनिक रूप में इस प्रातः कालीन आरतीक्रम से ही सिद्धाश्रम की साधनात्मक गतिविधियों का शुभारम्भ होता है, जिसमें सिद्धाश्रमवासियों सहित नित्यप्रति यहाँ पहुँचने वाले भक्तगण सम्मिलित होकर अपना जीवन सफल बनाते हैं।