कृष्णपक्ष की अष्टमी (शक्तिसाधना दिवस)

दुर्गा सप्तशती में कृष्णपक्ष की अष्टमी का महत्त्व बताते हुए मार्कण्डेय ऋषि कहते हैं कि “जो साधक कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन एकाग्रचित्त होकर भगवती की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसादरूप से ग्रहण करता है, उस पर भगवती प्रसन्न होती हैं।’

परम पूज्य सद्गुरुदेव जी महाराज के द्वारा कृष्णपक्ष की अष्टमी को ‘शक्तिसाधना दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। सद्गुरुदेव जी महाराज हर समय माँ की अखण्ड भक्ति में लीन रहते हैं। सर्वस्व प्राप्ति के पश्चात् भी ‘माँ’ का पूजन-अर्चन, ‘माँ’ का ध्यान व गुणगान सद्गुरुदेव जी महाराज के जीवन का अभिन्न अंग हैं। यही कारण है कि अपने निजी साधनाकक्ष के साथ, श्री दुर्गाचालीसा अखण्ड पाठ मंदिर व मूलध्वज साधना मंदिर में आपश्री नित्य ‘माँ’ का पूजन, दर्शन व आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

प्रत्येक दिन तो अपनी दैनिक साधना के साथ ही गुरुदेव जी सिद्धाश्रम संबंधी कार्यों के निरीक्षण निर्देशन व अन्य कार्यों में भी समय देते हैं, किंतु कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को उनका समय ‘माँ’ को आराधना व एकांत साधना में ही पूर्णरूपेण व्यतीत होता है। मास भर में केवल यहाँ एक दिन होता है, जब सुबह प्रणामक्रम के पश्चात्, सद्गुरुदेव जी महाराज से नए भक्तों के मिलने का क्रम नहीं होता।

दिनभर की एकांत साधना के पश्चात्, सायंकाल की आरती करके इस दिन सद्गुरुदेव जी महाराज ‘माँ’ के चरणों में यज्ञ-हवन का क्रम पूर्ण करते हैं, जिसकी पवित्र व सुगंधित धूम से सारा सिद्धाश्रम सुवासित हो उठता है। सायंकाल श्री दुर्गाचालीसा अखण्ड पाठ मंदिर की आरती व प्रणामक्रम के पश्चात्, हलवा प्रसाद का वितरण होता है एवं गुरुवर से मिलने का क्रम भी सम्पन्न होता है।

गुरुदेव जी के द्वारा महत्त्वपूर्ण रूप से प्रारंभ किये गए इस क्रम को समाज के लोगों ने आत्मसात करके ‘माँ’ की आराधना के मार्ग पर बढ़ना प्रारम्भ कर दिया है। गुरुवार व्रत के अलावा सद्गुरुदेव जी महाराज के द्वारा कृष्णपक्ष की अष्टमी का व्रत भी समाज को प्रदान किया गया है। यह तिथि माता को विशेष प्रिय है। इस दिन व्रत रहकर ‘माँ’ की उपासना का विधान प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। समाज में व्याप्त भटकाव व आडंबरों के अनेक क्रमों को त्यागते हुए संगठन से जुड़े लाखों भक्त इस फलदायी व्रत को अपनाकर आज जीवन में ‘माँ’ की कृपा प्राप्त कर रहे हैं। परम पूज्य गुरुवरश्री के द्वारा अष्टमी की ही भांति कृष्णपक्ष की नवमी व चतुर्दशी तिथि को भी महत्त्वपूर्ण बताया गया है। अतः कभी परिस्थितिवश अष्टमी का व्रत छूट जाने पर नवमी या चतुर्दशी तिथि में व्रत रहकर समान फल प्राप्त किया जा सकता है।

पौराणिक कथाओं में व्रत और पूजन की प्रक्रियाएं कठिनाई एवं जटिलताओं से भरपूर है। जिसके कारण श्रद्धालुजन पूर्ण एकाग्रभाव से व्रत-पूजन नहीं कर पाते और फल से वंचित रह जाते हैं। सद्गुरुदेव जी के द्वारा व्रत-पूजन की वह संतुलित, सारगर्भित और सरल प्रक्रिया समाज को प्रदान की गई है, जो समस्त जाति, आयु वर्ग के लोगों के लिए सुलभ और पूर्ण फलदायी है।

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