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आशीर्वचन
माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की कृपा व आशीर्वाद से इस भूतल पर एक धर्मकेन्द्र स्थापित करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ और 23 जनवरी 1997 को इस दिव्यस्थल पर ‘माँ’ की मूलध्वजा स्थापित की गई। पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की स्थापना से लेकर अब तक इन पच्चीस वर्षों में ‘माँ’ की इच्छानुसार सेवा, समर्पण, पुरुषार्थ का, जो सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ, वह मेरे स्वयं के जीवन के लिए विशेष उपलब्धि है।
भौतिक जगत् में क्या प्राप्त हो रहा है, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि अपने इष्ट के द्वारा निर्देशित कार्य में, जीवन के महत्त्वपूर्ण समय का उपयोग हुआ। एक ऋषि एक योगी की भूख उसकी तृप्ति इसी में रहती है कि उसको अपने स्वयं के जीवन को परमार्थ हेतु तपाने का सौभाग्य प्राप्त हो। ऋषि के लिए कर्म महत्त्वपूर्ण होता है, फल नहीं।
धर्म का यह केन्द्रबिंदु, सम्पूर्ण मानवता को युगों-युगों तक दिशा प्रदान करता रहेगा। बीते 25 वर्षों में सिद्धाश्रम से दी गई दिशा या यहाँ का कोई भी निर्माणकार्य आत्मबल एवं निष्कामभाव से किए गए पुरुषार्थ का परिणाम है। मैं इस कालखंड की यात्रा को, इस कलिकाल के भयावह वातावरण में, सत्यधर्म के पथ पर बढ़ाया हुआ अपना एक क़दम मानता हूँ। समाज के लिए यह संघर्षों से भरी हुई यात्रा हो सकती है, किन्तु मेरे लिए हरदिन का हरपल, आन्तरिक तृप्ति व प्रसन्नता के पल रहे।
इस यात्रा में जहाँ एक तरफ माता भगवती की कृपा बनी रही, वहीं दूसरी तरफ स्वयंसेवी विश्वासपात्र शिष्यों व परिजनों का पूर्ण समर्पणयुक्त सहयोग प्राप्त होता रहा, जिसके कारण आश्रमनिर्माण की दिशा में उठाए गए किसी क़दम के लिए मुझे धनवानों या राजसत्ताओं के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ी!
इन 25 वर्षों की यात्रा में मनुष्य के तीन महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों-धर्म की रक्षा, राष्ट्र की रक्षा और मानवता की सेवा हेतु तीन धाराओं भगवती मानव कल्याण संगठन, पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम धाम एवं भारतीय शक्ति चेतना पार्टी को स्थापित करके इन्हें गति प्रदान करने का क्रम रहा, जो सतत आगे चलता रहेगा। तप, पुरुषार्थ व निष्काम भावना के साथ स्थापित की गई सशक्त विचारधारा स्वयं में एक जीवंतशक्ति बन जाती है, जो समय के साथ लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेती है।
एक चेतनावान् ऋषि का एक-एक कदम अनेक लक्ष्यों, संभावनाओं व आदर्शों से परिपूर्ण रहता है, जिसे समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं। इसीलिए इस पूरी यात्रा को, मेरे आंतरिक विचारों को, मेरे निष्काम लक्ष्य को किसी के लिए शब्दों में पिरो पाना संभव नहीं है। फिर भी मेरी यात्रा, मेरा जीवन, समाज के बीच एक खुली किताब की तरह रहा है। इस जीवन की साधनात्मक यात्रा हो या जनकल्याण हेतु किए गए कर्मपक्ष की यात्रा, इसका आकलन समाज वर्तमान में भी कर रहा है और भविष्य में भी करता रहेगा।
मेरे जीवन का एक-एक पल व मेरे द्वारा स्थापित तीनों धाराओं के द्वारा किए जा रहे कार्य, भविष्य में भी समाज को दिशा प्रदान करते रहेंगे तथा इस सत्य से भी अवगत कराते रहेंगे कि निष्ठा, विश्वास, समर्पण से किए जाने वाले किसी भी कार्य में धनवल, जनबल से कहीं अधिक आत्मबल महत्त्वपूर्ण होता है। जीवन में आने वाले किसी भी संघर्ष या विपरीत परिस्थितियों में अपने धैर्य, धर्म और पुरुषार्थ का यदि त्याग नहीं किया जाता, तो हर बाधाओं को पार करके लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
इस पवित्रस्थल पर पिछले 25 वर्षों से चल रहे श्री दुर्गाचालीसा अखण्ड पाठ की ऊर्जा व अन्य साधनात्मक क्रमों से, जहाँ अब तक करोड़ों लोग लाभान्वित हो चुके हैं, वहीं आने वाले समय में भी सम्पूर्ण मानवता लाभान्वित होती रहे, यही मेरा आशीर्वाद है।
– धर्मसम्राट युग चेतना पुरुष योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज
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