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सिद्धाश्रम मुक्तिघाट
जन्म के साथ मृत्यु भी इस मानव जीवन का शाश्वत सत्य है। हर व्यक्ति जिसका जन्म हुआ उसका मृत्यु भी सुनिश्चित है और पूर्णमुक्त होने तक शरीर धारण करके आत्मा जन्म-मृत्यु के इसी चक्र में घूमता रहता है। हिंदू धर्म में जन्म-मृत्यु का जितना संतुलित और व्यवस्थित दर्शन है उतना दुनिया के अन्य किसी भी धर्म में नहीं है। हिंदू धर्म सनातन और विश्व में सबसे प्राचीन धर्म के रूप में स्थापित है जिसमें जीवन के 16 संस्कारों का वर्णन है जो पूर्णतया वैज्ञानिक विधियों और पद्धतियों पर आधारित हैं। इन संस्कारों में 16वां और अंतिम संस्कार अंत्योष्टि संस्कार बताया गया है। चूंकि मानव शरीर पंचमहाभूतों धरती, जल, अग्नि, आकाश और पवन से निर्मित है अतः प्राणरहित काया अग्निसंस्कार से पुनः प्रकृति में विलीन हो जाती है। श्रीकृष्ण भगवान गीता में कहते हैं कि-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
अर्थात्- “मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।”
यह सत्य है की जीव केवल शरीर नहीं बल्कि उस परमसत्ता का अंशस्वरूप है, आत्मा है। आत्मा की यात्रा भोग की नहीं अपितु संस्कारों की होती है। जीवन भर के संस्कारों के साथ विधिविधान पूर्वक हुए अंत्योष्टि संस्कार का फल आत्मा के साथ जुड़ता है।
सदगुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के द्वारा जहां लोगो के लिए जीवन भर सत्कर्म करके संस्कारअर्जन हेतु विविध प्रकार के धार्मिक आध्यात्मिक क्रमों की स्थापना सिद्धाश्रम धाम में की गई है वहीं मृत्युपश्चात मुक्तिगमन हेतु मुक्तिधाम की भी स्थापना की गई है जहाँ अग्निसंस्कार प्राप्त जीव सहज ही मुक्ति को प्राप्त होता है। दंडी सन्यासी स्वामी रामप्रसाद आश्रम जी महाराज एवं दानवीर बाबा की गुफा के मध्य, सिद्धाश्रम सरिता के तट स्थित मुक्तिघाट एक चैतन्य, सिद्ध शक्तिस्थल पर स्थापित होने के कारण सहज ही लोगों को मुक्ति प्रदान करती है।
जय माता की - जय गुरुवर की